साधना और सिद्धि का सिद्धान्त

September 1978

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आध्यात्मिक पुरुषार्थ का लक्ष्य होना चाहिए अन्तरंग की उत्कृष्टता का अधिकतम सम्वर्धन। यही है वह प्रयोग जो व्यक्ति को आत्म−सन्तोष, जन−सहयोग और दैवी अनुग्रह प्रचुर परिमाण में जुटा सकता है। ईश्वर की अनुकम्पा माँगने के लिए किये गये मनुहारों की सार्थकता तभी है जब अनुग्रह को आत्म परिष्कार की प्रचण्ड आकुलता के रूप में जाना जा सके।

दैवी अनुकम्पा इसी रूप में साधकों पर होती रही है। इसी दिव्य अनुदान को विभूतियों की उपलब्धि कहा जाता है। विभूतियों की आन्तरिक विशिष्टताओं की पूँजी जिसके पास जितने परिमाण में बढ़ी−चढ़ी होगी, वह उसी अनुपात में बाह्य जीवन में समर्थ और सुविकसित दृष्टिगोचर हो रहा होगा।

पात्रता के अनुरूप दैवी अनुकम्पा की उपलब्धि का तथ्य आत्मिक प्रगति की अपेक्षा करने वाले हर साधक को भली प्रकार ध्यान में रखना चाहिए। ईश्वर का अनुग्रह इस आधार पर नहीं मिल सकता कि मनुहार उपचार की घुड़दौड़ में कौन कितना आगे निकल गया। बात तब बनती है जब अन्तरंग की उत्कृष्टता का चुम्बकत्व दैव परिवार को अपनी ओर आकर्षित करता है और अपनी पात्रता के आधार पर प्राणियों का ही नहीं देवताओं का भी मन मोहता है।

उपासना कितनी गहरी और कितनी सार्थक रही, इसका प्रमाण परिचय एक ही बात से मिलता है कि आन्तरिक सुसंस्कारिता और बाह्य सज्जनता का कितना विकास सम्भव हो सका। साधना यों कहने को तो ईश्वर की अभ्यर्थना भी कही जा सकती है। किन्तु उसका वास्तविक स्वरूप एक ही है अन्तरंग में अवस्थित देव मानव को जागृत, प्रखर और समर्थ बनाने की आकुलता भरी चेष्टा। साधना का केन्द्र बिन्दु यही है अस्तु सिद्धियों का आधार भी इस उद्देश्य के लिए किये गये पुरुषार्थ को समझा जा सकता है।

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