अभीष्ट को अन्तरंग में खोजें

November 1977

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बहिर्मुखी दृष्टि बाहर का देखती है। जो फैला पड़ा है उसी का मूल्यांकन करती और उसी में रस खोजती है , जब कि अपने भीतर ही उससे अधिक पाया जा सकता है, जो दीखता है। इसे विधि की विडम्बना ही कहना चाहिए कि पैरों के नीचे की जमीन में दबी हुई प्रचुर खनिज सम्पदा की ओर ध्यान नहीं जाता और आसमान के तारों से वैभव खोज लाने के लिए मन उड़ाने भरता रहता है। ब्रह्माण्ड की छोटी प्रतिकृति पिण्ड है। जो बाहर दीखता है उसके बीज भीतर विद्यमान हैं। उन्हें उगाकर अभीष्ट आकांक्षाएँ पूरा कर सकने वाले कल्पवृक्ष जैसे व्यक्तित्व की उपलब्धि प्राप्त कर सकना अपेक्षाकृत सरल है। बाहर का बिखराव विस्तार बहुत व्यापक है। उसे ढूँढ़कर एकत्रित करने में इतना श्रम और समय लगता है, जिसकी तुलना में घर का उत्पादन कहीं सस्ता रहता है।

प्रकृति के विस्तार में से बहुत कुछ खोजा और पाया गया है। यह पुरुषार्थ और मनोयोग का ही प्रतिफल है। यही प्रयास यदि अंतरंग की खोज में नियोजित किया जाय सके तो उससे अधिक मूल्यवान पाया जा सकता है, जितना कि जड़-जगत की समस्त बालू में से तेल निकालने के फलस्वरूप उपलब्ध होती हैं मानवी सत्ता विलक्षण है उसमें जड़-जगत की समस्त विशेषताएँ सन्निहित है। साथ ही विश्व-चेतना की विभूतियों का सार तत्त्व भी संक्षिप्त किन्तु परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान है। खोज का क्षेत्र बाहरी जगत भी बना रहे किन्तु यह उचित होगा कि आत्म-सत्ता के कण-कण में ओत-प्रोत उस सम्पदा को भुला न दिया जाय जो अपने लिए सब से अधिक आवश्यक और उपयोगी है।

हम अपने को देखें, परखें, खोजें जो प्रतीत होगा जो हमारे लिए नितान्त आवश्यक है वह भीतर ही मौजूद है। यह वैभव इतना अधिक समर्थ है कि यदि उसे ठीक तरह से सक्षम किया जा सके तो उसे खींच बुलाना तनिक भी कठिन न रहेगा जिसकी तलाश में हमें निरन्तर मृग-तृष्णा में भटकने और खाली रहने का कष्ट उठाना पड़ता है।


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