पू. गुरुदेव के जल-उपवास का कारण और हमारा कर्त्तव्य

October 1976

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इस साधना के निम्न उद्देश्य हैं।

(1) आगामी सत्र प्रशिक्षण साधना परक होंगे। उनमें आत्मबल वृद्धि की विशेष साधनाओं एवं प्रेरणाओं की प्रमुखता रहेगी। इसके लिए ब्रह्मवर्चस्, आरण्यक की योजना प्रकाशित की जा चुकी है। वह प्रशिक्षण आश्रम बनने की प्रतीक्षा न करके, फिलहाल शान्तिकुंज के ही आधे भाग में आरम्भ किया गया है, और अक्टूबर से दस-दस दिवसीय नये सत्र इस योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ हो रहे हैं। इस अभिनव उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए अभीष्ट आत्म शक्ति का सम्पादन इसका एक कारण है।

(2) गुरुदेव सोचते हैं कि उनका जीवन काल स्वल्प रह गया है। इसी बीच उन्हें निम्न पाँच कार्यों की जीवन्त पृष्ठभूमि खड़ी करनी है-(1) विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की सुव्यवस्थित आधारशिला खड़ी करना (2) यज्ञ विज्ञान के माध्यम से मनोविकारों के निराकरण की प्रखर चिकित्सा पद्धति के लिए शोध और निष्कर्षों का प्रस्तुतीकरण (3) प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों को मानवी एकता के लक्ष्य पर केन्द्रित करने के लिए दार्शनिक एवं व्यावहारिक तथ्यों का निर्धारण (4) महिला जागृति अभियान में व्यापक प्रखरता उत्पन्न करना (5) जन-मानस के परिष्कार में धर्ममंच द्वारा लोकशिक्षण प्रक्रिया का अधिक सक्षम योगदान सम्भव बनाना।

इन पाँचों कार्यों को वे अपने कन्धों पर डाले गये विशेष उत्तरदायित्व मानते हैं। इन्हें पूरा कर सकने की क्षमता उत्पन्न करने के लिए प्रस्तुत तप-साधना द्वारा विशिष्ट शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं।

(3) युग-निर्माण परिवार की विशिष्ट आत्माएँ नवयुग अवतरण में विशेष योगदान देने के लिए भेजी गई थीं, पर वे नर-वानरों की तरह लोभ, मोह में ग्रसित सामान्य जीवन जी रही हैं। उन्हें विशिष्ट कर्तव्यों का बोध कराने एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण तथा मनुष्य में देवत्व के उदय के महान प्रयोजन में अधिक तत्परतापूर्वक लगने की अभिनव चेतना उत्पन्न करना।

(4) यों युग-निर्माण परिवार के अधिकाँश परिजन अपनी प्रामाणिकता का कीर्तिमान स्थापित किये हुए हैं, पर जब-तब उनमें से एकाध की दुःखद अप्रामाणिकता भी सामने आती रहती है। अपने से सम्बद्ध परिवार का स्तर इस योग्य बनाये रखना वे अपना उत्तरदायित्व समझते हैं, जिसके आधार पर नव-निर्माण की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सकें। जब कभी परिजनों की अप्रामाणिकता सामने आती है तो वे बहुत दुःखी हो उठते हैं। इन्हीं दिनों एकाध घटना ऐसी ही उनके सामने आई, जिससे वे अत्यन्त दुःखित एवं क्षुब्ध हुए हैं। उस अन्तर्व्यथा के निराकरण के लिए, बदले का प्रायश्चित स्वयं ही करने के लिए उतारू हो गए हैं।

उपरोक्त चार उद्देश्य प्रस्तुत 15 दिवसीय अथवा 24 दिवसीय जल-उपवास सहित अन्य कठोर साधना प्रक्रिया के हैं। इस सन्दर्भ में हर परिजन को गम्भीरतापूर्वक यह विचार करना चाहिए कि उपवास के प्रथम तीन उद्देश्यों को पूरा कर सकने में उनका क्या और किस प्रकार सहयोग हो सकता है? साथ ही चौथे आधार में जिस दुष्ट दुर्बुद्धी के प्रति गुरुदेव का आक्रोश है उसे अपने बीच कभी भी प्रवेश करने का अवसर न मिलने पाये इसके लिए तीक्ष्णतम प्रतिरोध की नीति अपनाई जानी चाहिए।

हम क्या करें?

गुरुदेव की वर्तमान अति कठिन तपश्चर्या के महान् उद्देश्यों को जितना सराहा जाय, उसकी उज्ज्वल प्रतिक्रिया के प्रति जितना अधिक आशावान् रहा जाय, उतना ही कम है। इस दृष्टि से इस तप द्वारा गुरुदेव की आत्मशक्ति की ऊर्जा में प्रचण्डता आने, परिजनों के आदर्शवादी कीर्तिमान स्थापित होने, मिशन की सृजनात्मक प्रवृत्तियों में प्रखरता आने और विश्वमानव के उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर होने जैसे असंख्य लाभ हैं। उसकी महत्ता और प्रतिक्रिया पर जितना विचार किया जाता है उतनी ही नवीन आशा का संचार होता है।

इतने पर भी यह निश्चित है कि सत्तर के लगभग आयु जा पहुँचने के करण, प्रकृति विधान के अनुसार, आजीवन अत्यधिक श्रम करने और आहार में सुविधाओं की उपेक्षा करते रहने के कारण उनका शरीर काफी जीर्ण हो गया है। तप के जल-उपवास वाले अंश को ही प्रकट किया गया है, उसके साथ-साथ जो अन्य कष्टसाध्य साधनाएँ जुड़ी हुई हैं वे अविदित ही रहने दी गई हैं। इस तप का प्रभाव उनके शरीर पर कितना पड़ेगा? उसे वे किस प्रकार सह पावेंगे? इस बात पर जब विचार किया जाता है तो भारी चिन्ता एवं बेचैनी उत्पन्न होती है।

इस असमंजस भरी विषम बेला में हम लोग हतप्रभ और किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति में जा पहुँचे हैं। एक दर्शक भी रहना नहीं चाहते और कुछ करते बन पड़े ऐसा दीखता नहीं। ऐसी दशा में कम से कम आत्म-सन्तोष के लिए गुरुदेव के तप उद्देश्य के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए और सहयोगी आश्वासन प्रकट करने के लिए हमें इस अवधि में अपना न्यूनतम कर्त्तव्य कर ही लेना चाहिए।

इस संदर्भ में ऐसा कुछ किया जाना चाहिए।

1-हममें से प्रत्येक को एक माला अतिरिक्त गायत्री जप प्रतिदिन इस तप साधना की सफलता के लिए विशेष रूप से करते रहना चाहिए।

2-अक्टूबर महीने में हर सप्ताह में किसी दिन समर्थ लोग उपवास करें। इन उपवासों को प्रवाही पदार्थ लेकर पूरा किया जाना चाहिए। दूध, छाछ, चाय, शाकों का सूप, फलों का रस जैसी पतली चीजें लेनी चाहिएं। मात्र जल-उपवास तो गुरुदेव अकेले ही करेंगे अन्य किसी को वैसा न करने के लिए उनका स्पष्ट निर्देश है। उसका उल्लंघन करने का हठ किसी को नहीं करना चाहिए।

3-जहाँ सामूहिक उपासना का कार्यक्रम सम्भव हो सके वहाँ उसके लिए प्रयत्न किया जाय। प्रातः सूर्योदय से लेकर सायं सूर्य अस्त तक का अखण्ड गायत्री जप रखा जा सकता है। इसके लिए प्रति सप्ताह कोई एक दिन नियत किया जा सकता है। स्थान नियत निर्धारित रहे और योजनानुसार सम्मिलित होने वाले व्यक्ति नियत समय पर वहाँ पहुँच जाया करें।

4-सायंकाल का सुविधाजनक समय, एक दो घण्टे का ऐसा रखा जाय जिससे उपवास के दिनों सभी लोग सामूहिक जप एवं कीर्तन में सम्मिलित हो सकें। वह कार्यक्रम दैनिक चले या साप्ताहिक, यह स्थानीय परिस्थितियों को देखकर ही निर्धारित किया जाय।

5-जहाँ सम्भव हो वहाँ रात्रि में विचार गोष्ठी चले और उसमें इस तप के उद्देश्यों एवं उसकी पूर्ति के उपायों पर प्रकाश डाला जाय। ऐसी गोष्ठियाँ साप्ताहिक तो चलनी ही चाहिएं। दैनिक हो सकें तो और भी अच्छा।

6- अन्तिम आयोजन 29 अक्टूबर को रखा जाय। उस दिन हवन रखा जाय और बन पड़े तो बड़े विशेष आयोजन वैसे ही रखे जावें जैसे कि अक्सर बसन्त पंचमी को रखे जाते हैं।

7-जहाँ सामूहिक प्रयत्न न हो सके वहाँ इन प्रक्रियाओं को व्यक्तिगत रूप से अथवा निजी परिवार के सहयोग से मनाया जा सकता है।

8-चूँकि निर्णय अकस्मात ही हुआ है। उसकी सूचना परिजनों को पत्रिकाओं के सहयोग से तब पता चलेगी जब अधिकाँश तप पूरा होने को आयेगा, इसलिए जिन्हें यह सूचना मिले उनका कर्त्तव्य है कि अपने क्षेत्र के परिजनों को इस सूचना से अवगत कराने के लिए स्वयं दौरा करें और व्यक्तिगत एवं सामूहिक उपासना का क्रम जहाँ बन सकता हो उसके लिए प्रयत्न करें। इसके लिए अपने प्रभाव का पूरा उपयोग करें।

9-इस सन्दर्भ में जहाँ जो प्रयास चलें उनकी सूचना मथुरा एवं हरिद्वार दोनों जगह पहुँचा दी जाय। आशा है सभी आत्मीय जन इस अति विषम बेला में अपने कर्त्तव्यों का इतना तो पालन करेंगे ही जितना कि ऊपर की पंक्तियों में बतलाया गया है।

इस उपवास क्रम में शान्तिकुंज के सभी सत्र यथावत् चलेंगे। शिक्षार्थियों के अतिरिक्त इन दिनों शान्तिकुंज में केवल वही व्यक्ति आवें जो उपरोक्त विषयों के सन्दर्भ में कुछ परामर्श देने या लेने की आवश्यकता अनुभव करते हों मात्र दर्शनार्थियों की भीड़ इन दिनों नहीं लगनी चाहिए। सम्भवतः उन दिनों कुछ भाव भरे परिजन अपने को रोक न सकेंगे और मिलने आने के लिए आतुर हो उठेंगे। ऐसे परिजनों से निवेदन है कि वे अनावश्यक भीड़ तथा साथ लेकर न चलें और एक दिन से अधिक समय शान्ति कुँज में न ठहरें।

भगवती देवी शर्मा

पो0 शान्तिकुंज, हरिद्वार

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