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वन्य पशुओं और जंगली झाड़ियों की तरह मनुष्य की सत्ता भी अनगढ़ होती है। उसे प्रयत्नपूर्वक सुगठित एवं परिष्कृत करने के लिए तत्त्वदर्शियों न जिस प्रक्रिया को अपनाया, उसे संस्कृति कहा जाता है। क्रमशः सभ्यता की लम्बी मंजिल पर चलते हुए ही मनुष्य उस स्तर पर पहुँचता है, जिससे मानवता गौरवान्वित होती है। यह सुन्दर संसार, व्यवस्थित समाज और व्यक्तित्वों के सुविकसित साधन सम्पन्न होने जैसे सभी वरदान इस संस्कृति साधना की देन हैं।
मनुष्य का व्यक्तित्व भी अपने आप में एक छोटा विश्व है। उसकी भीतरी और बाहरी सत्ता में इतना कुछ विद्यमान है जिसके सहारे आज का दयनीय दुर्दशाग्रस्त जीव कल सर्व समर्थ ब्रह्म बन सके। पर वह दिव्य वैभव प्रसुप्त पड़ा है। उसे कैसे जगाया और कैसे प्रयोग किया जाय, यह ऐसा विज्ञान है जिसे जानने पर विश्व की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियाँ करतलगत होती हैं।
आत्म-साधना, संस्कृति के उच्च सोपान पर पहुँचने का उच्च शिखर है, उस पर खड़ा होने वाला जो देखता, अनुभव करता और देता है, उसे निस्संकोच अनुपम और अद्भुत कहा जा सकता है।