देने वाला घाटे में नहीं रहता

July 1974

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

प्रकृति का नियम है—जो देता है वह पाता है; जो रोकता है वह सड़ता है। छोटी पोखर का पानी घटता, सड़ता और सूखता है, किन्तु झरने में सदा स्वच्छता गतिशीलता बनी रहती है और वह अक्षय भी बना रहता है। जो देने से इनकार करेगा वह गतिशीलता के नियम का उल्लंघन करके संचय में निरत होगा, उसे थोड़ा ही मिलेगा। अजस्र अनुदान पाने की पात्रता से उसे वंचित ही रहना पड़ेगा।

धरती अपना जीवन-तत्व वनस्पति को देती है। अनादि काल से यह क्रम चल रहा है। धरती का कोष घटा नहीं, वनस्पति की सड़न से बना खाद और वर्षा का जल उसका भण्डार भरते चले आ रहे हैं। धरती को देते रहने की साध उसकी मूर्खता नहीं है—जो देती है, प्रकृति उसकी पूरी तरह भरपाई करती रहती है।

वृक्ष फल-फूल, पत्ते प्राणियों को देते हैं। जड़ें गहराई से लाकर उनकी क्षति पूर्ति करती हैं। समुद्र बादलों को देता है, उस घाटे को नदियाँ अपना जल देकर पूरा किया करती हैं। बादल बरसते हैं उन्हें समुद्र कं गाल नहीं बनने देता। हिमालय अपनी बर्फ गला कर नदियों को देता हैं—नदियाँ जमीन को खींचती हैं। हिमालय पर बर्फ जमने का क्रम प्रकृति ने जारी रखा है, ताकि नदियों को जल देते रहने की उसकी दान वीरता में कमी न आने पावे।

आज का दिया हुआ भविष्य में असंख्य गुना होकर मिलने वाला है। कब मिलेगा इसकी तिथियाँ न गिनो। विश्वास रख देने वाला खाली नहीं होता। प्रकृति उसकी भरपाई पूरी तरह कर देती है।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118