बुद्धिमत्ता और मूर्खता की कसौटी

February 1974

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बुद्धिमत्ता की निशानी यह मानी जाती रही है कि उपार्जन बढ़ाया जाय—अपव्यय रोक जाय और संग्रहित बचत के वैभव से अपने वर्चस्व और आनन्द को बढ़ाया जाय। संसार के प्रत्येक क्षेत्र में इसी कसौटी पर किसी को बुद्धिमान ठहराया जाता है।

मानव-जीवन की सफलता का लेखा-जोखा लेते हुए भी इसी कसौटी को अपनाया जाना चाहिए। जीवन-व्यवसाय में सद्भावनाओं की—सत्प्रवृत्तियों की पूँजी कितनी मात्रा में संचित की गई? सद्विचारों का, सद्गुणों का, सत्कर्मों का वैभव कितना कमाया गया? इस दृष्टि से अपनी उपलब्धियों को परखा, नापा जाना चाहिए। लगता हो कि व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने वाली इन विभूतियों की संपन्नता बढ़ी है तो निश्चय ही बुद्धिमत्ता की एक परीक्षा में अपने को उत्तीर्ण हुआ समझा जाना चाहिए।

समय, श्रम, धन, वर्चस्व, चिन्तन मानव-जीवन की बहुमूल्य सम्पदाऐं हैं। इन्हें साहस और पुरुषार्थ पूर्वक सत्प्रयोजन में लगाने की तत्परता बुद्धिमत्ता की दूसरी कसौटी है। जिनने इन ईश्वर-प्रदत्त बहुमूल्य अनुदानों को पेट-प्रजनन में-विलास और अहंकार में खर्च कर डाला, समझना चाहिए वे बहुमूल्य रत्नों के बदले काँच-पत्थर खरीदने वाले उपहासास्पद मनःस्थिति के बाल-बुद्धि लोग हैं। वस्तु का सही मूल्यांकन न कर सकने वाले और उपलब्धियों के सदुपयोग में प्रमाद बरतने वाले मूर्ख ही कहे जायेंगे। जीवन-क्षेत्र में अपनी सफलता-असफलता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते समय यह देखना चाहिए कि कहीं दूरदर्शिता के अभाव में हम सौभाग्य को दुर्भाग्य में तो नहीं बदल रहे हैं? जीवन बहुमूल्य सम्पदा है। यह अनुपम और अद्भुत सौभाग्य है। इस सुअवसर का समुचित लाभ उठाने के सम्बन्ध में हम दूरदर्शिता का परिचय दे, इसी में हमारी सच्ची बुद्धिमत्ता मानी जा सकती हैं। —चिदानंद परिव्राजक


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