समझदारी कृपणता में नहीं, उदारता में है।

July 1972

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धरती अन्न उपजाती है। अन्न और वनस्पति उगाकर वह समस्त प्राणियों का पेट भरती है पर यह नहीं सोचती कि मेरा भण्डार खाली हो जायगा। उसकी यह उदारता सृष्टि क्रम के अनुसार लौटकर उसी के पास वापिस आ जाती है। प्राणी- पृथ्वी के अनुदान का उपभोग तो करते हैं पर प्रकारान्तर से उसकी निधि उसी को वापिस कर देते हैं। मल-मूत्र, खाद, कूड़ा, मृत शरीर यह सब लौट कर धरती के पास आते हैं और उसी में समा जाते हैं।

पर्वत के उच्च शिखर पर निवास करने वाली चट्टान किसी को कुछ देती नहीं। वह अपनी सम्पदा अपने पास ही समेटे बैठी रहती है। अपनी विभूतियाँ किसी को क्यों दे, यह सोचकर रेतीली मिट्टी की अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़, समर्थ शोभायमान चट्टान निष्ठुरता बरतती है और कृपण बनी रहती है, वर्षा होती है, विपुल जलधार बरसती है मृत्तिका आर्द्र हो उठती है उसकी तृषा तृप्त हो जाती है पर चट्टान को उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। भीतर तो एक बूँद घुसती ही नहीं बाहर जो नमी आती है उसे भी पवन एक झोंके में सुखा देता है। जबकि खेत की मृतिका बाहर भी देर से सूखती है और भीतर तो सरसता का सुखद आनन्द चिरकाल तक लेती रहती है। मिट्टी ने कुछ खोया नहीं, चट्टान ने कुछ पाया नहीं। उदारता अपनाकर मृत्तिका वरुण देव के स्नेह से अनायास ही सिक्त हो गई और चट्टान को सूर्य का कोप सदा संतप्त ही करता रहा।

बहता हुआ पानी स्वच्छ रहता है, उसे लोग पीते हैं और नहाते हैं। गड्ढे में रुका पानी सड़ जाता है पीने के योग्य वह नहीं रहता। कृपणता- रुके हुए गड्ढ़े की तरह है उसका संचय सड़ कर दुर्गन्ध ही उत्पन्न करता है। गड्ढ़े की संकीर्णता में बँधकर जल देवता की भी दुर्गति होती है।


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