कर्म साधना की अनिवार्यता

February 1972

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(रवीन्द्र नाथ टैगोर)

सामने जहाँ बस्ती दिखाई दे रही हैं, रंग-बिरंगे फूल खिल रहे हैं, सुन्दर क्यारियाँ और लता वितान झूम रहे हैं-वहाँ पहले एक बीहड़ जंगल था। यों कहिये जंगल की कुरूपता में उपवन और व्यवस्थित जीवन का सौंदर्य छिपा हुआ था उसे कर्म साधना द्वारा मुक्त कर लिया गया। समाज की उच्छृंखल और उन्मुक्त प्रवृत्तियों के बीच न्याय और नियम का स्वर्ग भी इसी प्रकार बसा हुआ है उसे मुक्त करने के लिये कल्याण-साधना आवश्यक है, अनिवार्य है।

मुक्ति हो या आनन्द, सत्य हो या सौंदर्य वह अपने आप प्रकट नहीं हो सकता। कुछ नियमों के द्वारा ही आनन्द प्रकाशित होता है। इसी प्रकार आत्मा भी कर्म द्वारा ही व्यक्त होता है। उन्मुक्त प्रकृति आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकती, कर्म जो कि कल्याण की कामना से किया जाता है वही आत्मा का सत्य है। यदि कर्म से आनन्द की प्राप्ति न हुई होती तो आत्मा कभी भी किसी कर्म में प्रवृत्त न होती।

मुक्त आत्मायें कभी कर्म से बच निकलने का प्रयास नहीं करती वरन् कर्म बन्धनों को जान-बूझकर स्वीकार करती हैं। और इन बन्धनों के भीतर से ही उन्मुक्त आनन्द की प्राप्ति होती है। इसीलिये उपनिषद्कार ने बताया है - “ऐ मनुष्य! कर्म करते हुये सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर।” आत्म-ज्ञानी जीवन के कार्यों में संलग्न हुये और उनको सफल नहीं बना लिया तब तक छोड़ा नहीं। उन महान पुरुषों के जीवन-वृत्तान्त अब भी हमें उसी मार्ग का अनुसरण कर मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा देते हैं।

-रवीन्द्र नाथ टैगोर

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