जीवन की त्रिधारा

August 1970

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प्रेम की साध, ज्ञान की खोज और विश्व-मानव की पीड़ा के प्रति असह्य करुणा-यह तीन आवेग मेरे जीवन का संचालन करते रहे हैं।

एक विराट् अन्तरिक्ष मेरे सामने खड़ा है, मेरा मत क्षुद्र कंकड़ के समान था, उस छोटे-से कंकड़ को बार-बार ज्ञान के इस अथाह सागर में तैराकर मैंने उसका रहस्य ढूंढ़ा, तारे क्यों चमकते हैं-इसे जानने के लिये मैंने विज्ञान के पन्ने पलटे। और मनुष्य के हृदय में क्या है, इसके लिए शास्त्र देखे। मेरी जिज्ञासायें कभी शाँत नहीं हुईं, क्योंकि मैं यह जानने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा हूँ कि संसार का अन्तिम सत्य क्या है?

उतनी ही लगन से मैंने प्रेम को ढूंढ़ा है। प्रेम मानव-अन्तःकरण को प्रकाश देने वाली ऐसे अमृत सत्ता है, जिसकी चाह कीट-पतंगों तक को है, उनमें जीवन के एकाकीपन से उत्पन्न ऊब और थकावट को मिटाने की शक्ति देखकर ही प्रेम के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। प्रेम की परम उपलब्धि को ही मैंने स्वर्ग माना है और इसलिये स्वर्ग को किसी लोक में न ढूंढ़कर प्राणिमात्र के प्रति निश्छल प्रेम में ढूँढ़ा।

यह दोनों भाव मुझे बार-बार ऊपर उठा ले जाने का प्रयत्न करते रहे, पर मैंने देखा-संसार बहुत दुःखी है, लोग अज्ञान में भटक रहे हैं कष्ट भोग रहे हैं। यह देखकर मेरे हृदय में बार-बार करुणा उमड़ी और मैंने स्वर्गीय सुखों का परित्याग कर पृथ्वी पर रहना और यहाँ के कष्ट-पीड़ितों की सेवा करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

मेरे जीवन की इति-वृत्ति इतनी ही है और चाहता हूँ कि जब भी नया जीवन मिले, इसी त्रिधारा में मेरा जीवन प्रवाहित बना रहे।

-वट्रेन्ड रसेल


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