जीवन का अभिप्राय- दिव्य-प्रेम

April 1970

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

प्रेम की गति मनुष्यों तक ही परिमित नहीं है मानव-जाति की अपेक्षा अन्य सृष्टियों में सम्भवतः यह कम विकृत अवस्था में है। पुष्पों और वृक्षों को देखो। जब सूर्य अस्त हो जाता है और सब कुछ नीरव हो जाता है, तब क्षण भर के लिए शाँत होकर बैठो और अपने आपको प्रकृति के साथ एक कर दो, तुम यह अनुभव करोगे कि पृथ्वी से, वृक्षों को जड़ के नीचे से, प्रगाढ़ प्रेम की कामना से पूर्ण एक अभीप्सा ऊपर उठ रही है यह अभीप्सा ऊपर की ओर बढ़ती हुई तथा वृक्षों के तंतुओं में से संचार करती हुई उनकी उच्चतम शाखाओं तक में हो रही है-कामना उस किसी वस्तु के लिये जो प्रकाश को लाती और सुख को फैलाती, उस प्रकाश के लिये जो चला गया है और जिसको वे चाहते हैं कि फिर लौट आवे। वहाँ यह इतनी पवित्र और तीव्र होती है कि यदि तुम वृक्षों में जो यह गति होती है, उसे अनुभव कर सको, तो तुम्हारी अपनी सत्ता भी उस शाँति और प्रकाश और प्रेम के लिये, जो यहाँ अभी तक अभिव्यक्त नहीं है, हार्दिक प्रार्थना करने लग जायेगी।

एक बार भी यदि तुम इस विशाल, विशुद्ध और सत्य दिव्य प्रेम के संस्पर्श में आ जाओ, यदि तुम इसको थोड़ी-सी देर के लिये भी और इसके लघुतम रूप का ही अनुभव कर पाओ, तो तुम यह अनुभव कर लोगे कि मनुष्य की वासना ने इसके स्वरूप को कितना नीच बना डाला है।

- श्री माता जी


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118