आदर्शों की रक्षा

October 1969

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मनुष्य का इतिहास जीव-धर्मी है। वह निगूढ़ प्राण -शक्ति से बढ़ता रहता है। वह लोहे-पीतल की तरह साँचे में ढालने की वस्तु नहीं है। बाज़ार में किसी विशेष समय पर किसी विशेष सभ्यता का मूल्य बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण ही समस्त मानव-समाज को एक ही कारखाने में ढाल कर फैशन के वशीभूत मूढ़ खरीददारों को खुश कर देने की दुराशा बिल्कुल व्यर्थ की वस्तु है।

पैरों का छोटा होना सौंदर्य या अभिजात्य का लक्षण है, यह समझकर कृत्रिम उपायों से उन्हें संकुचित करके चीन की स्त्रियों ने छोटे पैर नहीं पाये, बल्कि विकृत पैर ही उन्हें मिले हैं। भारतवर्ष यदि हठ से जबरन अपने को यूरोपीय आदर्श का अनुगामी बनाएँ, तो वह यूरोप नहीं बन सकता, सिर्फ विकृत भारतवर्ष ही बन सकता है।

इस बात को दृढ़ता के साथ याद रखना चाहिये कि एक राष्ट्र के साथ अन्य राष्ट्रों का अनुकरण और अनुसरण का सम्बन्ध नहीं, बल्कि आदान-प्रदान का सम्बन्ध है। हमारे अन्दर जिस वस्तु की कमी नहीं या हमें जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं, तुम्हारे पास भी ठीक वही वस्तु मौजूद हो तो तुम्हारे साथ हमारा लेन देन या परिवर्तन नहीं चल सकता और उसी हालत में हमारे लिये तुम्हारी समकक्ष रूप में कोई आवश्यकता ही नहीं रहतीं भारतवर्ष यदि असली भारतवर्ष न बन सकें तो दूसरों के बाजारों में मजदूरी करने के सिवा संसार में उसकी और कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इसलिये आज हमें अच्छी तरह समझ-बूझ कर निर्णय करना होगा कि जिस सत्य दूसरे देशों का अनुकरण नहीं वरन् विश्व-बन्धुत्व है जो भारतीय तपोवन में साधित हुआ है। हमारे भारतवर्ष में ब्रह्मचर्य ब्रह्म-ज्ञान सब जीवों पर दया, सब प्राणियों में आत्मोपलब्धि और आत्मा की अनुभूति की शोध हुई थी। इस तत्त्वज्ञान की रक्षा और अनुशासन से ही हम अपने को पा सकते हैं और संसार से आगे बढ़ सकते हैं।


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