क्या हमारे लिए यही उचित है?

June 1967

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केवल अपने लिये ही जीना मानव-जीवन का निकृष्टतम दुरुपयोग है। जो केवल अपने लिये ही पैदा हुआ, अपने लिए ही बढ़ा और आप ही आप खा खेल कर चला गया, ऐसा व्यक्ति अपनी दृष्टि में सफल भले ही बनता रहे वस्तुतः वह असफल ही माना जायेगा।

इस सृष्टि में सफल जीवन उसका है जो दूसरों के काम आ सके। बादल समुद्र से जल ढोकर लाते हैं और प्यासी धरती को परितृप्त करने में लगे रहते हैं। समुद्र की महानता को सुरक्षित रखने के लिये नदियाँ उसमें अपनी आत्म-समर्पण करते रहने की परम्परा को तोड़ती नहीं। फूल खिलते हैं दूसरों को हँसाने के लिये, पौधे उगते हैं दूसरों के प्रयोजन पूर्ण करने के लिये। वायु चँवर ढुलाते रहने की अपनी पुण्य प्रक्रिया से समस्त जड़-चेतन को प्रमुदित करती रहती है। इसमें इनका अपना क्या स्वार्थ? सूर्य चन्द्रमा और नक्षत्र इस जगती को अहिर्निश प्रकाश प्रदान करते हुए भ्रमण करते हैं, यही जीवन की उपयोगिता एवं सार्थकता है।

सृष्टि का प्रत्येक जड़ परमाणु और कीट-पतंग जैसा प्रत्येक जीवधारी अपनी स्थिति से दूसरों का हित साधन करता है। पशु दूध देते और परिश्रम से हमारी सुविधायें बढ़ाते हैं। जब छोटे-छोटे अनियमित जीव-जन्तु तक परोपकार का व्रत लेकर जीवन-यापन करते हैं, तब क्या मनुष्य जैसे बुद्धिमान् और विकसित प्राणी के लिये यही उचित है कि वह अपने लिये ही जिये, अपने लिये ही बढ़े? और अपने लिये ही मर जाए?

- हेनरी थोरा


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