परमात्मा का स्वरूप विराट् विश्व

October 1965

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जगत परमात्मा का व्यक्त रूप है। इसमें परमात्मा का एक महान उद्देश्य निहित है। वह जगत के उदाहरण से अर्थात् अपने दृश्यमान स्वरूप से मनुष्य को सृजन की शिक्षा देना चाहता है। जगत की उत्पत्ति तथा लय को परमात्मा का स्पन्दन भाव ही समझना चाहिए।

जगत परमात्मा का व्यक्त रूप है तो इसके प्रत्येक प्राणी में आत्मिक भाव होना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में बाह्य व्यवहार में समता होना ही चाहिए। जो व्यक्ति जगत के प्राणियों में समता का व्यवहार नहीं करता, वह परमात्मा से ठीक उसी प्रकार विद्रोह करता है, जिस प्रकार कोई अपने भाई से द्रोह कर, अप्रत्यक्षतः पिता ही से द्रोह करता है।

इस प्रकार के विद्रोही भाव का कारण है- अपने मूल स्वरूप का ज्ञान न होना। यदि हम यह समझ लें के हम परमात्मा रूपी सागर में बिखरी बूँदें, उठी लहरें और तैरते बुलबुले हैं तो परस्पर विषम भाव अथवा व्यवहार का कोई कारण ही न रह जाये।

-रवीन्द्रनाथ टैगोर


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