Unknown column 'navbar' in 'where clause' आत्मा की आवाज सुनो और उसका अनुसरण करो - Akhandjyoti June 1965 :: (All World Gayatri Pariwar)

आत्मा की आवाज सुनो और उसका अनुसरण करो

June 1965

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जब कभी अकस्मात् ऐसा आभास हो कि आपको किसी ने आवाज दी हो, और आस-पास देखने और खोजने पर भी पुकारने वाले का पता न चले तो निश्चित रूप से यह समझिए कि आपको अपनी अन्तरात्मा ने आवाज दी है, और उस आवाज का केवल एक ही तात्पर्य है “कि ऐ अमुक! अपने को समझ और मुझको पहचान!” अपने को समझने का अर्थ है- यह देखो कि हम अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार हैं या नहीं? यदि नहीं तो तत्काल ही विवेचना कीजिए उन्हें सुधारिए और एक नये उत्साह से लक्ष्य की ओर बढ़ते जाइये! आत्मा तुम्हारे भीतर तुम्हारे विवरण लेने के लिए जाग्राक है, साथ ही वह एक हृदय पहले की तरह एक दिबा लिए तुम्हारे पर प्रकाश बिखेर रही है। डरो मत तुम्हारे पथ में अन्धकार तो तब हो जाता है जब कोई आँख बन्द करके चलता है। जिसकी आंखें ठीक खुली हैं उसके सामने अन्धकार का कोई प्रश्न नहीं है। कोई डडडड डडडड को सावधान करने डडडड अपनी ओर डडडड करने का डडडड ही देना है। आत्मा की आवाज भी लिए कभी-कभी सुनाई देती है कि मनुष्य और अपनी ओर उन्मुख करने की ही आवाज देता है। ......की आवाज भी ....... लिए कभी-कभी सुनाई देती है कि मनुष्य सावधान होकर ....उसकी ओर उन्मुख हो। सचमुच हो। समय डडडड से गुजर रहा है इसलिए वह प्रमोद से सावधान होकर जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर है। जिसने आत्मा की आवाज सुनी, इसका अनुकरण किया उन्होंने ही मानव जीवन को सार्थक बनाया है और जो जीवन की उपेक्षा करते रहे उन्होंने डडडड कर पछताते रह जाना पड़ा है।

ऋषि विरु बल्लुवर

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परमात्मा का प्रेम पूर्ण है, पवित्र है।

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मनुष्य के जीवनोद्देश्य का जितनी गहराई से अध्ययन करें उतना ही यह स्पष्ट हो जाता है कि “अतिशय आनन्द” ही उसकी मूलभूत आकाँक्षा या जीवन का लक्ष्य है। जिस वस्तु में मनुष्य को आनन्द का आभास होता है। वह उधर ही दौड़ता रहता है। यह बात दूसरी है कि अल्प बुद्धि, अविकसित हृदय एवं प्रसुप्त विवेक के कारण वह सच्चे आनन्द को न समझ-पा सके किन्तु चिर-सुख की अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य करता है और इसी लक्ष्य की पूर्ति में ही उसका सारा जीवन बीत जाता है।

जिन वस्तुओं में आनन्द दिखाई देता है उसके प्रति प्रेम होना, अनुराग होना मनुष्य-स्वभाव की विशेषता है। लेकिन जिस आनन्द की अभिलाषा से मनुष्य पदार्थों से प्रेम करता है उस आनन्द की पूर्ति आदि न हो तो यह समझना चाहिये कि उससे जीवन-लक्ष्य हल नहीं होता। वह अग्राह्य है। विषय वासनाओं में सुख तो जरूर है पर वह क्षणिक है और मनुष्य की लालसा यह है कि वह ऐसा सुख प्राप्त करे जो कभी नष्ट न हो, जिससे उसे कभी भी विमुख न होना पड़े।

धन आनन्द की वस्तु है पर वह स्थायी नहीं है। थोड़ा-सा आनन्द देने के बाद धन अपना साथ छोड़ कर भाग जाता है। सब की आँखों में धूल झोंकती हुई लक्ष्मी देवी कभी इसके पास, कभी उसके पास डोलती रहती है, न उससे एक को ही पूरा आनन्द मिलता है न दूसरे को ही। धन का सुख, सुख नहीं मृगतृष्णा है, भुलावा है। अतः धन के प्रेम को भी साध्य नहीं कहा जा सकता।

स्त्री, पुत्र, साँसारिक भोग, धन, आदि सभी सुख के साधन समझे जाने वाले पदार्थ अपना रूप बदलते रहते हैं, परिवर्तनशील हैं अतः इन वस्तुओं में प्रेम का सार नहीं है। द्वेष अखण्ड-आनन्द की अभिव्यक्ति है तो वह वियोग-शील वस्तुओं से कैसे बँधकर रह सकता है। पदार्थों से, प्रियजनों से, धन या भोग-पदार्थों से बिछोह होने पर दुःख पैदा होता है, जलन पैदा होती है, ईर्ष्या द्वेष कलह, मद और मत्सर पैदा होते हैं, तो इन्हें शाश्वत द्वेष की वस्तु कैसे माना जा सकता है। पूर्ण प्रेम तो परमात्मा का ही है, उसी में मनुष्य को सच्चे आनन्द के दर्शन हो सकते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है—

एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुँसः स्वार्थः परः स्मृतः।

एकान्त भक्ति गोन्दे यत् सर्वत्र तदोक्षणम्॥

7। 7। 55

अर्थात्- इस संसार में मनुष्य का सबसे बड़ा और सच्चा स्वार्थ इतना ही माना गया है कि वह परमात्मा की अनन्य भक्ति, अनन्य प्रेम प्राप्त करे। उस प्रेम का स्वरूप है सर्वदा सर्वत्र सब वस्तुओं में समान रूप से भगवान् का दर्शन करें।”

प्रेमी-भक्त के लिए विविध साधनाओं एवं कष्ट-दायक प्रक्रियाओं की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उसकी सभी साँसारिक कामनायें नष्ट हो जाती हैं। उसके लिए ईश्वर का प्रेम ही लक्ष्य बन जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-

तेषाँ ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यतं।

प्रियो हिज्ञानिनोऽर्त्यथमहं स च मम प्रियः॥

(7 । 17)

अर्थात्- नित्य मुझ में एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम-भक्ति वाला ज्ञानी अति उत्तम है। क्योंकि मुझको सत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।”

परमात्मा से प्रीति करने वाले के सभी दुःख दारिद्रय मिट जाते हैं। प्राणी रंक से राजा हो जाता है। राज्य-सुख, धन या वैभव का उपभोग मनुष्य अकेले नहीं करता। तमाम इष्ट-मित्रों, प्रियजनों-परिजनों को उसका लाभ देने में सुख मिलता है। परमात्मा अनन्त सुख-वैभव के स्रोत हैं। जो लोग उनके समीप जाते हैं वे निहाल हो जाते हैं। उनका संपर्क इतना प्रभावशाली होता है कि मनुष्य की क्षुद्रतायें समाप्त हो जाती हैं। जिसके जीवन में अक्षुण्ण सुख ओत-प्रोत हो रहा हो उसे विविध कामनाओं से क्या प्रयोजन। परमात्मा के सान्निध्य में मनुष्य की इच्छायें ऐसे ही पूर्ण

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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

वर्ष 26 सम्पादक - श्री राम शर्मा आचार्य अंक 6


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