शास्त्र मन्थन का नवनीत

December 1965

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सम्पन्न नर मेवान्नं दरिद्रा भुज्जते जनः। क्षुत्स्वादुताँ जनयति साचाढयेषु दुर्लभः॥

(म. भा. उ. 34। 50)

अन्न का असली स्वाद दरिद्री (मेहनती) पुरुषों को मिला करता है कारण कि क्षुधा अन्न में स्वाद पैदा करती है, अर्थात् जोर से भूख लगने पर खाने में जो स्वाद आता है, वह स्वाद धनवान् को दुर्लभ है।

कृच्छे स्वपि न तत्कुर्यात्साधूनाँ यदसम्मतम्।

जीर्णशी चहिताशीच मिताशीच सदाभवेत ॥

(विष्णु धर्मात्तर पु. 2। 233। 265)

सज्जन पुरुषों के विरुद्ध व्यवहार विपत्तिकाल में भी न करें और हमेशा जीर्णशी (भूख लगने पर खाने वाला) मिताशी (अन्दाज का खाने वाला) और हिताशी (जो पदार्थ लाभदायक हों उनको खाने वाला) होवे। ऐसे व्यवहार से इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त होता है।

नहिं मासं तृणाद् काष्ठादुपलाद्वापि जायते। हमे जन्तौ भवेन्माँसं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥

(स्कं पु. 6। 29। 232)

यह माँस, तृण, काष्ठ और पत्थर से उत्पन्न नहीं होता जीव के मरने पर प्राप्त होता है, इसलिए इसको त्याग दे।

सुरामत्स्याः पशोर्मां संद्विजातीनाँ बलिस्तथा। धूर्त्तैः प्रवर्तित यज्ञेनैतद् वेदेषु कथ्यते ॥

(म.भा.शाँ. 265। 9)

शराब, मछली, पशु का माँस द्विजातियों में जीव का बलिदान इनको धूर्तों ने प्रवृत्त किया है, वेदों में कहीं नहीं कहा गया।

यक्ष रक्षपिशाचान्नाँ मद्यं माँसं सुरासवम । तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामा श्रंता हविः ॥

(मनु. 11। 96)

माँस, मदिरा आदि यक्ष, राक्षस और पिशाचों का भोजन है। ब्राह्मण को न खाना चाहिए।

ना कृत्वा प्राणिनाँ हिंसा माँसमुत्पद्यते क्वचिद्। न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्माँसं विवर्जयेत्॥

(मनु. 5158)

प्राणी की हिंसा किये बिना माँस नहीं मिलता और प्राणी का वध स्वर्ग देने वाला नहीं अतः माँस न खाना चाहिए।

देयमार्त्तस्य शयनं स्थित श्रान्तस्य चासनम्।

तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य चभोजनम्॥

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषितम्।

उत्थाय चासनं दद्यादेषधर्माः सनातनः॥

(म. भा. वन. अ. 2)

रोग पीड़ित को शयन के लिए स्थान, थके को आसन, प्यासे को पानी, भूखे को भोजन देना चाहिए। आये हुए को प्रेम दृष्टि से देखें, मन से चाहें, मीठी वाणी से बोले, उठा करके आसन दे- यह सनातन धर्म है।

दान मेवकलीयुगे। (पराशर॰ 1। 23)

दानमेकं कलौयुगे। (मनु0 1। 86)

कलियुग में दान ही मुख्य धर्म है।

न्यायार्जित धनं चापि विधिवद्यत्प्रदीयते । अर्थिभ्यः श्रद्धयायुक्त दान मेतदुदाह्वतम् ॥

ईमानदारी से पैदा किया हुआ पैसा विधिपूर्वक अर्थी (चाहने वाले) को श्रद्धा के साथ देना- दान है।


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