हे जन विराट जागो! (कविता)

April 1962

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(श्रीनिधि द्विवेदी)

जागो जागो हे जन विराट! जागो।
छलना छाया निद्रा आलस त्यागो॥

फिर कोटि-कोटि पग नव पथ का निर्माण करें।
हर ओर सुमति शाश्वत स्वतंत्रता हो सबकी।
उस कोटि-कोटि कर व्यथित विश्व का त्राण करें॥
छल की सत्ता हो क्षीण मित्रता हो सबकी॥
भय, भ्रांति, कलह, ईर्ष्या, अशांति को दूर करो।
जन-गण-मन में दैवी संपद् सद्भाव भरो।
हर क्षुधा, अलक्ष्मी, धरती में धन धान्य भरो॥
हर पाप ताप सत् चित् का पुण्य प्रभाव भरो॥

जग को बदलो भय से न कहीं भागो।
जागो जागो हे जन विराट ! जागो॥

संदेहों पर जय हो विकसित विश्वासों की।
सुप्रभ रवि शशि हों सोने के प्रातः सायं।
आँधियाँ रुकें आशंकाओं उच्छवासों की॥
जल और अग्नि ज्वालाएँ अपनाएँ संयम॥
नित शीतल मंद सुगंध समीरण बहता हो।
हो शस्य श्यामला फल-फूलों से हरी भरी।
संदेश शांति का राष्ट्र राष्ट्र से कहता हो॥
अवनी अंबर की श्री हो नित्य नई निखरी॥

वसुधा को प्रेम सुधा से फिर पागो।
जागो जागो हे जन विराट! जागो॥

—(‘धर्मयुग’ से)


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