अग्निहोत्र- है क्या?

January 1956

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(ले. श्री हरिदत्त शास्त्री एम.ए . कानपुर)

“अग्निहोत्र” शब्द अग्नि के आह्वान का वाचक है, यह अग्नि यज्ञाग्नि, द्यु लोकाग्नि, भौमाग्नि भेद से तीन प्रकार का है। यज्ञाग्नि में हवि का प्रक्षेप किया जाता है जिसके द्वारा वायु की शुद्धि होती है जल व आकाश में पवित्रता आती है। द्यु लोकाग्नि का कार्य रसों का लेना व देना है। सूर्य या चन्द्र जलों का आकर्षण करते हैं, तथा फिर उसके सहस्रधा बना कर पृथ्वी को ही प्रदान कर देते हैं। इस दिव्य गुण के कारण ही सूर्य, चन्द्र आदि देव कहाते हैं। देवों का कार्य परहित साधन है, यज्ञ शब्द का भी यही अर्थ है। यज्ञ के द्वारा देवताओं की पूजा की जाती है, पूजा का अर्थ रोली या चावल चढ़ाना ही नहीं किन्तु उस पदार्थ का सदुपयोग करना है, जल को मैला करना या जल में मल मूत्र का प्रक्षेप करना या विष आदि हानिकारक, रुधिर वसा आदि घृणास्पद वस्तुओं को जल में मिलाना जल की पूजा नहीं किंतु जल की निन्दा है, इसी प्रकार अग्नि में मल, विष्ठा, केश, नख आदि का जलाना और उसको अपवित्र करना अग्नि की पूजा नहीं किन्तु अग्नि की निन्दा है। भौमाग्नि के द्वारा यन्त्रों का चलाना, भोजन का पकाना, लोहे को मुलायम करना, पिघलाना, सुखाना, जलाना आदि कर्म किये जाते हैं, इन कर्मों का यथावत् उपयोग लेना ही अग्नि की पूजा है। विपरीत उपयोग सब निन्दा है, जैसे आत्म-हत्या अपने शरीर को जल में डुबाना, जहरीली वस्तु खाना, अग्नि में फूँकना आदि क्रियाओं से की जा सकती हैं, तथा जो लोग ऐसा करते हैं वे ‘आत्मघाती’ कहाते हैं इस ही प्रकार जो व्यक्ति आत्मा को बिना पहचाने इस लोक से प्रसून करता है वह भी ‘आत्मघाती’ कहाता है। उपनिषद् में लिखा है कि—“योवाऽविदित्वाऽऽत्मान-मस्माल्लो सत्र् प्रयाप्ति स आत्मा कृपणाः”॥

अर्थात्—जो व्यक्ति मनुष्य जन्म लेकर आत्मा पहिचानने का प्रयत्न नहीं करते वे आत्मघाती कहाते हैं, गीता में भी लिखा है कि—

“आत्मैवह्यात्मनो बन्ध रात्मैवरिपुरात्मनः। उद्वरेदात्मनाऽऽत्मानं आत्मान् सब सादयेत्॥

अर्थात्—मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है और अपने को नीचे गिरा सकता है तथा ऊपर उठा सकता है उन्नति या अवनति करना मनुष्य के अपने हाथ की चीज है, इस आत्मोन्नति के साधनों में ‘यज्ञ’ एक विशेष महत्वपूर्ण साधन है, यज्ञ के तीन लाभ हैं शरीर को पवित्र करना, मन को पवित्र करना तथा आत्मा को पवित्र करना। इन तीनों उद्देश्यों की सिद्धि गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि नाम की तीन अग्नियों से की जाती है, गार्हपत्य शरीर को पुष्ट करती है क्योंकि यह डडडड को उत्तम-उत्तप्त भोजनों से पुष्ट करता रहता है, आह्वनीय के द्वारा मानसिक सद्गुणों का प्रवेश किया जाता है, इस शरीर या मन को यदि पुष्ट और तंदुरुस्त रखा जाय तो ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों की प्राप्ति हो सकती है, अन्य कुछ नहीं, सर्वोत्तम अग्नि दक्षिणाग्नि जो दक्षिणा देना या त्याग करना इस दृष्टि से आत्म सुख का सर्वोत्तम साधन है, अतएव

“दानमेकं कलौयुगे”

अर्थात्—सुख या परमपद की प्राप्ति कलियुग में एक मात्र “दान” से ही हो सकती है, क्योंकि दान देने वाला अपने पापों को दान लेने वालों के प्रत्यर्पण कर देता। यही कारण है कि दान लेने वाले के बड़े तपस्वी और “तितिक्षु” होना आवश्यक था। इन सब साधनों को ‘त्रेताग्नि’ के नाम से भी पुकारते हैं, यह उक्त तीनों अग्नियों का सामुदायिक या collective नाम है। यह महापद्धति बाह्य शुद्धि में परम उपयोगी है अतः शुद्धि के लिये जप की बड़ी आवश्यकता होती है अतएव गीता में “यज्ञानाँ जप डडडडडडऽस्मि ” यह वाक्य मिलता है जिसका स्पष्ट यही आशय है कि मानसिक या आध्यात्मिक पवित्रता के लिए मानसिक पवित्रता अनिवार्य है। केवल बाह्य शुद्धि, मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती।

यह आदान प्रदान का लेन देन का सिलसिला चला ही आता है—इस परम्परा को उपस्थित रखने में यह ‘यज्ञ’ परम सहायक है अतएव अग्निहोत्र करना ही चाहिये यह शास्त्रकारों का मत है, यह यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ आदि भेद से पाँच प्रकार का है- जिसके न करने से मनुष्य के प्रत्यवाय या पाप का भागी होता है।


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