यज्ञ—भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक

July 1955

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यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। हमारे धर्म में जितनी महानता यज्ञ को दी गई है उतनी और किसी को नहीं दी गई। हमारा कोई भी शुभ अशुभ धर्म-कृत्य यज्ञ के बिना पूर्ण नहीं होता। जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार होते हैं इनमें अग्निहोत्र आवश्यक है। जब बालक का जन्म होता है तो उसकी रक्षार्थ सूतक निवृत्ति घरों में अखंड अग्नि स्थापित रखी जाती है। नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में भी हवन अवश्य होता है। अन्त में जब शरीर छूटता है तो उसे अग्नि को ही सौंपते हैं। अब लोग मृत्यु के समय चिता जलाकर यों ही लाश को भस्म कर देते हैं पर शास्त्रों में देखा जाय, तो वह भी एक यज्ञ है। इसमें वेद मन्त्रों से विधि पूर्वक आहुतियां चढ़ाई जाती हैं और शरीर को यज्ञ भगवान के अर्पण किया जाता है।

यह भी भारतीय धर्म का मूल है आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग, सुख, बन्धन मुक्ति, मनः शुद्धि, पाप प्रायश्चित, आत्म बल वृद्धि और ऋद्धि सिद्धियों के केन्द्र भी यज्ञ ही थे। यज्ञों द्वारा मनुष्य को अनेक आध्यात्मिक एवं भौतिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। वेद मन्त्रों के साथ-साथ शास्त्रोक्त हवियों के द्वारा जो विधिवत हवन किया जाता है उससे एक दिव्य वातावरण की उत्पत्ति होती है। उस वातावरण में बैठने मात्र से रोगी मनुष्य निरोग हो सकते हैं। चरक ऋषि ने लिखा है कि “आरोग्य प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को विधिवत् हवन करना चाहिए।” बुद्धि शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व शक्ति है। जिनके मस्तिष्क दुर्बल हैं या बुद्धि मलीन है वे यदि यज्ञ करें तो उनकी अनेकों मानसिक दुर्बलताएं शीघ्र ही दूर हो सकती हैं। यज्ञ से प्रसन्न हुए देवता मनुष्य को धन, सौभाग्य वैभव तथा सुख साधन प्रदान करते हैं। यज्ञ करने वाला कभी दरिद्री नहीं रह सकता। यज्ञ करने वाले स्त्री पुरुषों की सन्तान बलवान, सुन्दर और दीर्घजीवी होती हैं। राजा दशरथ को यज्ञ द्वारा ही चार पुत्र प्राप्त हुए थे। गीता आदि शास्त्रों में यज्ञ को आवश्यक धर्मकृत्य बताया गया है और कहा गया है कि यज्ञ न करने वाले को यह लोक और परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। यज्ञ के द्वारा ही साधारण मनुष्य देव योनि प्राप्त करते हैं और स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं। यज्ञ का सर्व कामनापूर्ण करने वाली कामधेनु और स्वर्ग की सीढ़ी कहा गया है। याज्ञिकों की आत्मा में ईश्वरीय प्रकाश उत्पन्न होता है और इससे स्वल्प प्रयत्न द्वारा ही सद्गति का द्वार खुल जाता है। आत्म साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का तो यज्ञ अमोघ साधन है। यज्ञ में अमृतमयी वर्षा होती है उससे अन्न, पशु, वनस्पति, दूध, धातु, खनिज पदार्थ आदि की प्रचुर मात्रा में उत्पत्ति होती है और प्राणियों का पालन होता है। यज्ञ से आकाश में अदृश्य रूप से ऐसा सद्भावनापूर्ण सूक्ष्म वातावरण पैदा होता है जिससे संसार में फैले हुए अनेक प्रकार के रोग, शोक, भय, क्लेश, कलह, द्वेष, अन्याय, अत्याचार नष्ट हो सकते हैं और सब लोग प्रेम और सुख शान्तिपूर्वक रह सकते हैं।

प्राचीन काल में ऋषियों ने यज्ञ के इन लाभों को भली प्रकार समझा था। इसीलिए वे उसे लोक कल्याण का अतीव आवश्यक कार्य समझ कर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजनों में ही लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी तब यह भारत भूमि स्वर्ण सम्पदाओं की स्वामिनी थी, आज यज्ञ को त्यागने से ही हमारी दुर्गति हो रही है। यों शास्त्रोक्त यज्ञ विद्या का आज लोप सा हो गया है। पर जो कुछ भी ज्ञान और साधन आज मौजूद हैं उनसे भी आशाजनक लाभ उठाया जा सकता है।


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