विवेक वाटिका के सुवासित पुष्प

November 1950

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

(ले. श्री मनोहरदास जी, अआवत)

सत्यता, सद्वचन, सत्कर्म, उदारता, क्षमा, लोकहित आदि कोई न कोई कार्य करते रहना चाहिए, ये सब बहुत बड़े सहायक हैं। -स्वामी रामतीर्थ ।

तिनके के समान हलका बनने से, वृक्ष के समान सहिष्णु बनने से, मान छोड़कर दूसरों को मान देने से, इष्ट की महिमा समझने से तथा अभिमान का त्याग करने से साधना शीघ्र सफल होती है। इस प्रकार योग्यता प्राप्त करने के लिए सत्संग, धर्मग्रंथ और भक्त चरित्र का अभ्यास, गुरु ज्ञान का पालन तथा माता-पिता आदि गुरुजनों की तथा भक्तों की सेवा पूजा करना बहुत आवश्यक है।

-विजयकृष्ण गोस्वामी।

हे भगवान् ! मेरे जीवन के शेष दिन किसी पवित्र वन में शिव-शिव-शिव जपते हुए बीते, साँप और फूलों का हार, बलवान बैरी और मित्र कोमल पुष्प शय्या और पत्थर की शिला, रत्न, पत्थर, तिनका और सुन्दर कामिनी-इन सब में मेरी समदृष्टि हो जाय।

-भर्तृहरि।

लाभ क्या है? गुणियों की संगति । दुःख क्या है? मूर्खों का संग । हानि क्या है? समय को नष्ट करना। निपुणता क्या है? धर्म में प्रीति। शूर कौन है? जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है। प्रियतम कौन है? जो पवित्र है? धन क्या है? विद्या । सुख क्या है? पर देश न जाना। राज्य क्या है? अपनी आज्ञा का चलाना।

-भर्तृहरि।

रे मनुष्य ! तू दीन होकर घर-घर क्यों भटकता है? तेरा पेट तो सेर भर आटे से ही भरता है। सुना है, भगवान तो उस समुद्र को भी भोजन पहुँचाते हैं जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है। संसार में कोई भूखा नहीं रहता, चींटी और हाथी सभी का पेट भगवान भरते है। अरे मूर्ख, तू विश्वास क्यों नहीं करता। -सुन्दरदास।

मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ, और न मोक्ष ही चाहता हूँ, मैं दुःख पीड़ित प्राणियों के दुःख का नाश चाहता हूँ। -राजा शिवि।

मैं परमेश्वर से आठ सिद्धियों वाली उत्तम गति या मुक्ति नहीं चाहता, मैं केवल यही चाहता हूँ कि समस्त देहधारियों के अन्तःकरण में स्थित होकर उनके कष्टों को भोगूँ जिससे उन्हें कष्ट न हो। -राजा रन्तिदेव।

लोभ, दीनता, भय और धन आदि किसी भी कारण से मैं अपना व्रत नहीं छोड़ सकता - यह मेरा दृढ़ निश्चय है। -भीष्म पितामह।

सब जीवों में आत्मभावना रखने के कारण यदि समस्त गुणों के आधार अद्वितीय परमात्मा मुझ कर प्रसन्न हों तो (मुझे मारने की चेष्टा करने वाले) ये ब्राह्मण (दुर्वासजी) सन्ताप से छूट जाएं। -भक्त अम्बरीष।

तुम परमेश्वर और भोग दोनों को सेवा नहीं कर सकते, विषय न बटोरो, कल के लिए चिन्ता न करो-कल अपनी चिन्ता आप करेगा। -महात्मा ईसामसीह।

ईर्ष्या, लोभ, क्रोध और अप्रिय किंवा कटुवचन इससे सदा अलग रहो, धर्म प्राप्ति का यही एक मार्ग है। -तिरुवल्लुवर।

काम के समान व्याधि नहीं, मोह के समान बैरी नहीं, क्रोध के समान आग नहीं, और ज्ञान से परे सुख नहीं है। -श्री चाणक्य।

सत्संग से दुर्जनों में साधुता आती ही है, साधुओं ही में दुष्टों की संगत से दुष्टता नहीं आती। फूल के गन्ध को मिट्टी ही ले लेती है, मिट्टी के गन्ध को फूल नहीं धारण करते । -श्री चाणक्य।

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118