रामायण में ‘माया’ बन्धन की विवेचना।

May 1950

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(श्री रत्नेश कुमारी जी, मैनपुरी)

जीव को बन्धन में बाँधने वाली “माया” के संबंध में अनेक आचार्यों ने अनेक प्रकार से वर्णन किया है। इन सब विवेचनाओं में महात्मा तुलसीदास जी की रामायण में की हुई विवेचना अधिक हृदय आडी और सुबोध है, रामायण में कहा है-

मैं और मोर, तोर, यह माया।

परा जासु बश जीव निकाया॥

मैं, मेरा, तेरा की भावना संकीर्ण हृदय और तुच्छ स्वार्थ की द्योतक है। जो लोग अपना सुख, अपना लाभ, अपना स्वार्थ, इतना प्रधान रखते हैं कि उसकी अधिकाधिक पूर्ति में उन्हें अन्य किसी की हानि की परवाह नहीं होती ऐसे लोग मायाबद्ध कहे जा सकते हैं। अपने सुख का वास्तविक तात्पर्य है- अपनी आत्मा का सुख। ऐसा सुख, आत्म त्याग और लोक सेवा द्वारा प्राप्त होता है। अपनी शक्तियों को केवल अपने शरीर के भोग में वो अपने लिए अधिक भौतिक साधन सामग्री एकत्रित करने में लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्य आत्मसुख का आनन्द नहीं प्राप्त कर सकते चाहे वे साँसारिक दृष्टि से कितने ही बड़े सम्पन्न क्यों न हों।

संसार की सभी वस्तुएं भगवान की हैं। इनका सदुपयोग करके जीवन को सफल एवं सुविकसित बनाने में ही बुद्धिमानी है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु गतिशील, परिवर्तित होने वाली एवं नाशवान है। इनको जो व्यक्ति अपनी मान लेता है, उसका स्वामी बनता है, उसके प्रति ममता का भाव स्थापित कर लेता है वह भूल करता है। इस भूल का नाम ही माया है। पानी की चंचल लहरें क्षणक्षण में पैदा और विलीन होती रहती हैं। प्रत्येक लहर के पैदा होने पर जो प्रसन्न होता है और उसके मिटने के साथ रोता है उसे मूर्ख ही कहा जायेगा। इसी प्रकार धन वैभव, कुटुम्ब, शरीर आदि भी परिवर्तनशील और नाशवान हैं जो इनको अपनी अचल सम्पत्ति मान बैठता है उसे इनका वियोग होने पर बड़ा दुखी होता है। मायाबद्ध जीव इसलिए संसार के स्वाभाविक परिवर्तनों में अपना हानि-लाभ देखकर रोते हंसते रहते हैं, यह भ्रान्त दृष्टिकोण ही माया है।

माया के बन्धन में, अज्ञान की भूलभुलैयों में फंसाने वाली ममता ही है। यह मेरा है यह तेरा है, लघु चेतना वाले ही ऐसा हिसाब लगाते हैं, जिनका हृदय उदार है विवेक जागृत है वे संसार भर को अपना कुटुम्ब मानते हैं। यह सब पसारा अपना ही है। सब में अपना ही आत्मा समाया हुआ है। सब अपने ही हैं, ऐसा समझ कर आत्म विस्तार की भावना से मनुष्य सहज ही त्रिलोक का स्वामी होने जैसा आनन्द प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो थोड़ी सी वस्तुओं को ही अपना समझते हैं वे सदा दीन, दरिद्र, अभावग्रस्त रहते हैं उन्हें प्रतीत होता रहता है कि उनके पास बहुत ही कम धन है, उनकी जाति बड़ी छोटी है, उनका वैभव बड़ा सीमित है ऐसे लोग अपने को दरिद्रता ग्रस्त अभागा ही मानते रहते हैं।

अपने पराये का भेद मिटाकर अपने को विनम्र विश्व नागरिक, समाज का एक अविच्छिन्न अंग, विश्वात्मा परमात्मा का एक अंश आत्मा मानते हैं वे समुद्र में मिलकर अपने को महान सिन्धु अनुभव करने वाली बूँद की तरह सदा आनन्दित रहते हैं ऐसे ही लोग जीवन मुक्त या माया रहित कहे जाते हैं। जो संकुचित हैं, ममता मगन हैं, अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाते हैं, रामायण ने उन्हें ही मायाबद्ध बताया है।

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) एक अंक का।)

सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य


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