उद्बोधन (कविता)

June 1940

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(श्री.—शास्त्री श्री कान्त, नारायणपुरीय)

मानव उठ जीवन ज्योति जगा।

तू सत्यं शिवं सुन्दरं है, तू है अविनाशी अजर अमर ।
तू अविचल, अलख निरंजन है, अमृतमय है तेरा निर्भर॥
फिर आज भटक किस ओर पड़ा, सुध भूल गया कैसे अपनी।
सुनसान मलीन अंधेरा सा, क्यों पड़ा हुआ है तेरा घर॥

अज्ञानमयी दुर्बुद्धि भगा।
मानव उठ जीवन ज्योति जगा॥

चल जगती तल पर सोच समझ, मैला मत कर लेना अंचल।
पग थाह-थाह कर चलना रे, इस जग में आगे है दल-दल॥
असिकी धारा पर चलना है, मत इधर उधर को दृष्टि उठा—
अपनी पीड़ा को पी जाना, बह जाय न नयनों में से जल॥

पहचान विराना और सगा।
मानव उठ जीवन ज्योति जगा॥

इस चोर ठगों की नगरी में मत गाँठ कटा जाना प्यारे।
ऐसे कागज के किले न रच, जो फूंक लगे विनशें सारे॥
‘बड़े भाग मानुष तन पावा’ फिर भी सूझ रही शैतानी—
सँभल, गिरा जाता है मूरख, जीती बाजी को मत हारे॥

खेकर, यह नौका पार लगा।
मानव उठ जीवन ज्योति जगा॥


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